Monday, July 2, 2012


यह मुठभेड़ फर्जी है या राजनीती और मानवाधिकार के नारे !!

शहीद वर्दियों का अपमान न करें ? 









छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा के जंगलों में 28th जून देर रात सीआरपीएफ जवानों और नक्सलीयों के बीच जबर्दस्त मुठभेड़ हुई। इसमें 18 नक्सलीयों के मारे जाने की खबर मिली है। सीआरपीएफ के छह जवान गंभीर रूप से घायल हुए हैं। दंतेवाड़ा के इन जंगलों में रात को हुई यह मुठभेड़ करीब छह घंटे तक चली .छत्तीसगढ़ के बीजापुर में सीआरपीएफ और नक्सलियों के बीच हुए एनकाउंटर पर अब केंद्र सरकार और राज्य सरकार के मंत्रियों के बीच राजनीतिक 'मुठभेड़' चल रही है। केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री चरणदास महंत ने कहा है कि यह मुठभेड़ फर्जी है ! हम कितनी आसानी से सुरक्षा बलों के मनोबल को तोड़ देते हैं और शहीदों के खून की राजनीती के गंदे खेल में हर पल उस शहादत को अपमानित करते हैं. आखिर क्यों ? 

क्यों हम खाकी पहने वाले इंसान को सिर्फ सूखे पत्तों के तरह मरने वाली चीज समझ लेते हैं . आपको यह बता दें की जिस जगह सुरक्षा बल ने यह एनकाउंटर किया वह उस चिंतलनार के बेहद करीब है, जहां अप्रैल 2010 में नक्सलीयों ने सुरक्षा बल के कैंप पर हमला कर 75 जवानों को मार दिया था। तो कहां थे मंत्री महोदय उस वक़्त जब ७५ वर्दियां लहूलुहान हो गयी थी ? किस देश भर के गलियों में में छुपे थे मानवाधिकार की चिल्लपों कर अपनी दुकान चलने वाले ठेकेदार और टीवी पर बहस करने वाले बुद्धिजीवी वर्ग ? तब क्यूँ नहीं नहीं बनाई गयी समितियां और मुठभेड़ की समीक्षा की गयी ? मुझे यह बहस नहीं करनी है की क्या सही हैं या गलत ! 

किसी निर्दोष के खून की वकालत कोई भी सभ्य समाज कभी नहीं कर सकता पर यहाँ मुद्दा कुछ और है ? किन वातावरण और बंदिशों में पुलिस का जवान मौत से लोहा लेता है उसे नज़रअंदाज कर उसके हर काम की निंदा करना आज के आधुनिक समाज का फैशन है. 

भारत के करीबन 12 राज्यों के लगभग 125 जिलों में नक्सल ने अपना कब्ज़ा सा बना लिया है. भारत के गृह सचिव जी के पिल्लई के अनुसार नक्सल सालाना $300 मिलियन यानी 1400 करोड़ रुपया की उगाही करते है . यह गरीबों एवं आदिवासियों के अधिकारों की लड़ाई का दिखावा कर रहे नक्सल के किस आर्थिक विकास अजेंडा है ? सरकार के ही आंकड़े यह बताते हैं की 1980 से अबतक लगभग 11575 लोग नक्सल आतंक का शिकार हुए हैं जिसमे 6377 नागरिक , 2285 सुरक्षा बल कर्मी और सिर्फ 2913 नक्सलवादी हैं. प्रश्न है की इन 9000 नागरिकों और जवानों की मौत का मानवाधिकार कौन देख रहा है. ? इतनी मौतों की कौन सी जाँच की जा रही है ? 1980 से लेकर आज तक कितने कदम उठाये गए हैं ? 

'बच्चे और सशस्त्र विरोध' नामक अपनी वार्षिक रपट में संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि नक्सली बच्चों को दस्ता बनाकर अपना दायरा विस्तृत कर रहे हैं.सशस्त्र नक्सली बच्चों की नियुक्ति करने के साथ ही उन्हें नक्सल आंदोलन के लिए बौद्धिक स्तर पर तैयार कर रहे हैं। बड़े स्तर पर अपने फैलाव के लिए नक्सली इन बच्चों का बाल दस्ता, बाल संघम और बाल मंडल बना रहे हैं. 

मानवाधिकार के बुद्धिजीवी क्या यह जानते है वर्षों से CRPF टुकड़ियाँ और पुलिस के जवान दंतेवाडा के बीहड़ जंगलों में बुनियादी नागरिक सुविधायों से दूर लगे हुए हैं और इस डर से की कब उनकी गाडी किस बारूदी सुरंग का शिकार हो जाए ? सरकार और नक्सल दोनों के बीच फंसे यह जवान बहनों की शादी , बुडी अम्मा की खांसी और अपने बड़ते बच्चों की मुस्कराहट के लिए तरसते हुए , अखबारों में नेताओं के भ्रष्ट काले कारनामें और बुद्धिजीवों की अनर्गल प्रलाप को भी जानते हुए इस लिए शहीद होने को तैयार हैं ताकि हम और आप काफी की चुस्कियां लेकर बहस कर सके. क्या इन सबका हल सिर्फ कानून और खाकी है ?

केंद्र सरकार नक्सल प्रभावित प्रत्येक जिले में विकास कार्यो के लिए अलग से प्रति वर्ष 55 करोड़ रूपए का अनुदान दे रही है . इनमें आदिवासी क्षेत्रों का संवेदनशील तरीके से विकास, पर्याप्त सुरक्षा बलों की तैनाती और राजनीतिक प्रक्रिया को मजबूत करना शामिल है.

जिस देश में सामाजिक रूप से अभी भी भारी विषमतायें हैं. 40 % जनसंख्या भी अनपढ़ हैं . 43 % बच्चे कुपोषण के शिकार हैं. 42% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है सार्वजनिक वितरण प्रणाली आधी आबादी तक नहीं पहुँच पा रहे है. भ्रस्टाचार से त्रस्त होकर देश के युवक बेकारी और हताशा के शिकार हो रहे हैं. देश के विकास कार्यों और योजनायों का लाभ जनता तक पहुँच ही नहीं पा रहा है जो आक्रोश को पैदा कर रहा है. 

कमरों में बैठकर नीति बनाने और बहस करने से बहुत अलग स्थिति गोलियों का सामना करनेवाले सुरक्षाबलों को झेलनी पड़ती है. राजनैतिक दलों के पास विकास का मुद्दा सिर्फ नारों में वोटों के लिए रहा गया है . जांत पांत , धर्म और सामाजिक संबधों में दरार की राजनीती खेल कर सत्ता के गलियारों में पहुँचने वाले नेताओं , आपराधियों के सहारे वोट बटोर कर कुर्सी हथियाने वाले और आये दिन घोटालों की समाचारों में महंगाई से परेशान जनता ...क्या इन सबका हल सिर्फ कानून और खाकी है ? क्या नक्सल समस्या का हल , विकास के नाम पर आबंटित हो रहे करोड़ों के फंड भ्रस्टाचार का शिकार तो नहीं हो रहे हैं ? क्या नक्सल समस्या का जीवित रहना राजनीती शतरंज की बिसात का असली मुद्दा तो नहीं है ? 

यह सभी स्वीकार करते हैं की विकास और आर्थिक समृधि ही नक्सल का हल निकाल सकती है. पर 2010 के एक सर्वे के अनुसार हमारी नारेबाजी और जवानों के शहीद होने पर घडियाली आंसू बहाने वाली सरकार और चाक चौबंद हो जाने का दावा करने वाला असहाय प्रशासन , की कारगुजारी चौकाने वाली है . 2006 के वन मान्यता कानून के तहत आदिवासियों को वन जमीन के आबंटन में ढिलाई बरती गयी . बिहार में मात्र एक तिहाई अधिकारों का निपटारा हुआ . नक्सल की जबरदस्त मार झेल रहे झारखण्ड में यह केवल 15 % ही था. कांकेर - छत्तीसगढ़ जहाँ आयेदिन नक्सल मुठमेड की खबरें आती रहती है , में 60 % जनसँख्या पिछड़े वर्ग की है. इसके बावजूद ग्रामीण रोजगार योजना का सिर्फ 5% बजट क्रियान्वित किया जा सका. यह सिर्फ कुछ उदहारण है. 

विकास योजनायों की हालत , विस्थापित एवं पुनर्वास जैसे गंभीर विषयों में उदासीन सरकार और भ्रस्टाचार में लिप्त राजनैतिक ढांचा ...क्या सिर्फ बंद हाथों में दिए गए हथियारों के बल पर ही नक्सल का हल खोजा जाएगा . 

आवश्यकता है एक सशक्त राजैतिक इच्छा शक्ति की, एक प्रभावशाली और सक्षम नेतृत्व की ,और संकल्प के साथ विकास और योजनायों को आदिवासियों के घर तक पहुंचाने की. शायद हम ऊँचे फ्लायोवर , मेट्रो रेल प्रोजेक्ट , छः आठ लेन वाले एक्सप्रेस वे में कहीं विकास ढूँढने लगे है और यह भूल गए है की भारत की ७०% से अधिक आबादी इन सबसे कहीं दूर दैनिक जीवन यापन की कशमकश में है. 

यदि शहरों को सुरक्षित रखना है तो इन सुदूर गावों और जंगलो में बसे लोगों को भी उनके माहौल में सुखी रखना होगा..क्यूंकि याद रहे ...शहर का विकास , इनके ही मुंह का कौर छीनकर , इन्हें ही विस्थापित कर , इन्ही की संसधानो की डकैती कर किया जा रहा है . 

सिर्फ कुछ और लहूलुहान होती खाकी वर्दियों की गिनती भर कर लेने से इस सामजिक समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता . यदि लड़ना है तो सरकार की उस वयवस्था से लड़ा जाए जो इन विकास को रोक रखे है . यदि आवाज उठानी है तो वहां उठायें जहाँ नीतियां और योजनायें बनाई जा रही है . यदि नष्ट करना है तो भ्रस्टाचार और सुस्त प्रणाली को नष्ट करें ....हथियारों से प्रश्न नहीं सुलझते . 

पर सवाल यह है की विगत 44 सालों से इस समस्या पर बहस हो रही है. हथियारों और वोट बैंक पर टिकी कुर्सियों के सौदागर इसका हल निकालना चाहेंगे या गोलियों से छलनी वर्दियों पर काफी की चुस्की ले रहे मानवाधिकार की दुकान चला रहे लोग इस समस्या की जड़ तक जाना चाहेंगे ???

By Poonam Shukla (पूनम शुक्ला )

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