Thursday, July 7, 2011

देश के हर सवाल का जवाब खाकी नहीं है


देश के हर सवाल का जवाब खाकी नहीं है 

आज समाचारों में , टीवी न्यूज़ चैनलों में बढ़ते अपराध पर प्रोग्राम्स की संख्या भी बड़ती जा रही है . बहुत सालों बिकने वाली मनोहर कहानियां और सत्यकथा जिसे लोग शरमाते हुए बुक स्टाल  से खरीदते थे अब हमारें घर में बिना किसी संकोच के प्रसारित हो रहें हैं. बढ़ते अपराधों के राजनीती के बीच मैं यह सोचती रही की क्या हर इन सवालों का जवाब कानून है...और इसे नियंत्रण रखने की जिम्मेदारी सिर्फ  खाकी पर है.


1953 से 2009 के आंकड़ों का अध्ययन करने पर विगत 56  सालों में भारतीय समाज में अपराधों को लेकर इतनी बढ़ोत्तरी हुई है की जो हमारे गिरते सामाजिक मूल्यों का सबूत देते हैं और संस्कारित समाज की दुहाई को बेकार साबित  करते हैं

 विगत 56 सालों में अपराधों में 252% की बढ़ोत्तरी हुई है.  अपहरण के मामलों में 543% की बढोत्तरी हुई और  दंगों में 206 % की वृद्धि हुई .

 सबसे  दुःख की बात है भारत जैसे संस्कारित कहे जाने वाले समाज में बलात्कार के केसों में 760 % की बढ़ात्तरी हुई है. यह सिर्फ उन केसों के आंकड़े है जो दर्ज हुए हैं. 

2009  के एक आंकड़े के अनुसार महिलयों के प्रति अपराध  203804 केसेस हुए हैं जिसका सिर्फ  conviction rate  27.8% रहा है..

कुछ दिनों से उत्तरप्रदेश और दिल्ली में बलात्कार और महिलायों पर हो रहे संगीन  अपराधों को लेकर बहस छिड़ी हुई है और आये दिन इस तरह की वारदातें आ रही है....क्या है इसका हल ? गंगा यमुना की पवित्र भूमि पर इस तरह के अपराधों में हो रही बढ़त का जिम्मेदार कौन है ? येहाँ मैं पुलिसिया भूमिके पर बहस की बजाय एक अलग दृष्टिकोण पर बहस करना चाहूंगी...

2009 के आंकड़ों के अनुसार  21493 बलात्कार के केसों में 27.1  % नाबालिग केस थे.  क्या आप जानते हैं की 94 % केसों में अपराधी लड़की से परिचित लोग ही थे . 35 % पडोसी , 1.6 % नजदीकी संबधी  और 7.3  % केस दूर के संबधी थे.

अब नज़र डालते हैं पुलिस पर . 2010  में 371 पुलिस जवान शहीद हुए . 2006  से हर साल 350 से 400  पुलिस जवान हर साल कर्त्तव्य की बलिवेदी पर शहीद हो रहे हैं . 2009  कमें 954 पुलिस जवान मारे गए जिसमे 234  जवान नक्षलवाद/आतंकवाद के शिकार हुए ,  9 दंगों में और 60 अपराधियों का मुकाबला करते हुए बाकि 625 दुर्गतानयों के शिकार हुए. इसी साल 4020  जवान घायल  हुए जिसमे  1783 जवान दंगों  को सम्भालते वक़्त घायल हो गए और 968  जवान अपराधियों से लड़ते हुए अस्पताल पहुँच गए. 


जिस देश में सामाजिक रूप से अभी भी भारी विषमतायें हैं. ४०% जनसंख्या  भी अनपढ़ हैं . 43 % बच्चे कुपोषण के शिकार हैं.  42% आबादी गरीबी रेखा के नीचे है  सार्वजनिक वितरण प्रणाली आधी आबादी तक नहीं पहुँच पा रहे है. भ्रस्टाचार से त्रस्त होकर देश के युवक बेकारी और हताशा के शिकार हो रहे हैं. देश के विकास कार्यों और योजनायों का लाभ जनता तक पहुँच ही नहीं पा रहा है जो आक्रोश को पैदा कर रहा है. 

राजनैतिक दलों के पास विकास का मुद्दा सिर्फ नारों में वोटों के लिए रहा गया है . जांत पांत , धर्म और सामाजिक संबधों में दरार की राजनीती खेल कर सत्ता के गलियारों में पहुँचने वाले नेताओं , आपराधियों के सहारे वोट बटोर कर कुर्सी हथियाने वाले और आये दिन  घोटालों की समाचारों में महंगाई से परेशान जनता ...क्या इन सबका हल सिर्फ कानून और खाकी है.

अधिकाश  छेत्र आयेदिन माओवादियों के कब्जे में होता जा रहा है...शोषण के खिलाफ लोगों का झुकाव नक्षलवाद की तरफ बढ़ता जा रहा है...हताश और लाचार युवक  अपराधों के पार्टी आकर्षित होते जा रहे हैं .

टीवी सीरियल और सिनेमा में खुले आम परोसे जा रहे अश्लीलता का भोजन , किसी भी  बुक स्टाल में आसानी से मिलती देशी विदेशी अश्लीलता को बेचती किताबें ...हम किस समाज का निर्माण कर रहे हैं. ?

संयुक्त परिवारों से अलग होती जिंदगी...पश्चिम का अन्धानुकरण  करती आज की युवा पीढ़ी जिसे आजादी बहुत सस्ती मिल गए है ...किन संस्कारों की बात हम कर रहे हैं ? 
समाज के सामने भी एक बड़ा सवाल ये खड़ा होता है कि आखिर कहॉ कमी रह गयी है हमारी शिक्षा और संस्कारों में जो हम किसी भी अबला को निशाना बनाने के लिए तत्पर हो जाते हैं. क्यों नहीं हमारी आत्मा हमें दुष्कृत्य करने से रोकने में सक्षम हो पाती और क्यों हमारी नारियां हर स्थान पर अपने को असुरक्षित पाती हैं.सवाल है स्त्रियोचित मानसिकता में बदलाव और परावलंबी भावना से मुक्ति पाने का.

रही बात सरकारी नीतियों की तो ध्यान रहना चाहिए ऐसे मामलों पर कितना भी कठोर कानून बना लिया जाए लेकिन जब तक समाज की मूलभूत मानसिकता में बदलाव नहीं होता, बहुत व्यापक परिवर्तन की आस बेकार है. सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़ने की बजाय स्वयं की जिम्मेदारी समझने की अधिक आवश्यकता है तभी हम स्त्रियों के सम्मान और अस्मिता की रक्षा लायक समर्थ समाज बनाने में कामयाब हो सकेंगे.

समाज भूमिका अदा करता है बजाय मूक दर्शक बन कर सिर्फ टीवी न्यूज़ देख संतोष कर पुलिश पर टीका टिपण्णी कर . उसे जवाब मांगना  है नेताओं से सामाजिक सुरक्षा पर ना की कानून की धाराएँ बना कर. 

याद रहे पुलिश के जवान और अधिकारी भी इसी समाज से निकल कर आते हैं. प्रशासनिक अधिकारी भी इसी समाज में पैदा होते हैं. यही समाज भ्रस्त नेताओं और अपराधियों को जनम देता है.  यही समाज महिलायों की सुरक्षा का जिम्मेदार भी है. 

हमें  उन संस्कारों को जन्मघुट्टी की तरह पिलाना है ...हमें आपने सांस्कृतिक मूल्यों का इंजेक्सन  देकर इस समाज के रक्त में फैलाना है...यही इसका इलाज  है. 

तो आइये ...देश के अपराधों , नक्सलवाद का हल खाकी की बजाय कहीं और खोजें ...शायद हम इसकी जड़ तक पहुँच  जाए. कई बार हमें इसका मूल कारण पता रहता है पर जबान पर लेने  से डरते है . 

महिलायों के प्रति बढ़ते अपराध पर राजनीती करने की बजाय  इसका हल समाज के भीतर  खोंजे .....

सिर्फ  FIR लिख देने से इसका हल नहीं निकलेगा 

एक नए दृष्टिकोण से बहस करें...

क्या यह विडबना नहीं है इस  विश्व के सबसे बड़े प्रजातान्त्रिक देश में  निश्पच्छ चुनाव के लिए भी खाकी की ताक़त पर निर्भरता है....

poonam shukla

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