Sunday, January 30, 2011

भागती रहती सहमी भीड़ का हिस्सा हूँ मैं , और यही तो अब मानो गणतंत्र है


हरदिन उस रस्ते से जब  भी गुजरती हूँ , उस वृद्ध को  वहीँ बैठा पाती हूँ.
कटोरे लिए कांपते हाथों के बावजूद  उसकी आँखों में एक कसक सी पाती हूँ 

पता नहीं क्यों मेरा मन बरबस उसकी तरफ कई बार खिंचा चला आता है 
जब भी कभी वह ताम्बे वाले उस तमगे को मल मल कर सीने से लगाता है 
टूटी बैसाखी पर कभी वह खड़े होकर , अपने फटे कुचले कपड़ों को संवार ,
दूर की इमारत पर लहराते तिरंगे को वह एकटक देखता रह जाता है.

रोक ना पाई आखिर मैं अपने आप को और बैठ ही गयी उसके  पास  ,
उसकी जुबान  मे मानो  निकल रही थी उसदिन ,जनता  की  बोलियाँ  .
उसने लड़ी थी आजादी की  लड़ाई , त्यागा था सब कुछ अपना ,
फिर सीमा पर लड़ा था वह और खाई पैर पर दुश्मन की गोलियां .

दफतरों के चक्कर और दौड़ती फाईलों से थक वह आ गया सड़कों पर
सिग्नल पर थमती लालबत्ती से टिमटिमाती कारों से उम्मीदें लिए .
ऊँची होती इमारतों और उड़ते फ्लायओवर में छिपती  झुग्गियों में ,
वह रहने लगा वादों और आश्वासनों के सुनहरे सपनो की नींद लिए .

मैं सोचने लगी उसके लिए कुछ करूं ,पर आज  इतनी करुणा क्या कम है ?
आज के ज़माने में  इतना बैठ कर इस बारे में  , मेरा सोच लेना ही क्या कम है ?
मेरी कार आते ही वह मेरी ओर  देखता है तो  अख़बारों में चेहरा छिपा लेती हूँ, 
भागती रहती सहमी भीड़ का हिस्सा हूँ मैं , और यही  तो अब मानो गणतंत्र है





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