मुल्क के हर वाशिंदों में , हर दरजे में ,
हर आखों में निराशा देखा .
देश के सत्ताशिखर पर प्रजातंत्र के नाम पर ,
हो रहा तमाशा देखा .
लुप्त होती नैतिकता , खत्म हुई मानवता
हर किसी को धर्म और छेत्र के नाम पर
हर एक के लहू का प्यासा देखा
आज
मेरे देश के हर सवाल पर ,
यह रहबरे , मुल्क क्यों मौन सा है ?
अखबारों की काली सुर्ख़ियों में
सहमा सिमटा यह देश कौन सा है ?
यह में क्या देखता हूँ
भयभीत चेहरों के बंद होठों की जुबान
उजरीं हुई बस्तियां और जलते हुये मक्कन .
खरोंचों से भरी देह लिए बहना की दास्तान ,
क्या येही है मेरा वो प्यारा हिंदुस्तान .
केस की फाईलों से पटी अदालतें ,
न्याय क्यों इतना गूंगा बेहरा है ?
क्या मायने हैं आज़ादी के ,
क्या गुलामी का जख्म इतना गहरा है ?
राजनीति की देहलीज़ पर दम तोड़ता प्रशासन ,
हर विकास , हर योजना , हर दफ्तर पर ,
भ्रष्टाचार का पहरा है .
उन मासूम चेहरों को देखो जीनहोने मौत को देखा है ,
जा कर पूछ रोती बहना से ,
जिसने इंसानी वेश में हैवान देखा है .
क्या तेरी रगों में बहता नहीं , सुभास भगत राणा और शिवाजी का खून ,
या फिर तुने कौन सा और कैसा हिंदुस्तान देखा है ?
नहीं देखी गज़नी और चंगेज़ की लूट ,
तो अपने ही नेताओं द्वारा लूटता हिंदुस्तान देख .
न सूनी नादिर के हमले , तो दंगों और आतंक से तड़पता हिंदुस्तान देख .
याद नहीं विभाजन की काली रातें , वोह गुलामी के काले दिन ,
तो गरीबी , भूखमरी और बेकारी से कराहता हिंदुस्तान देख .
यदि चाहिए वह देश तो हर कतरे मैं खून का उबाल चाहिए ,
गंगा कावेरी के मौजों से उछलता चीखता इन्कलाब चाहिए ,
हिमालय को पिघलाता , हिंद्सागर से उफानता
हर गली -कुचे मैं क्रांति का एलान चाहिए
आज़ादी मिली तो भी क्या , आज़ादी की जंग अभी भी जारी है
बाहरी ताकतों से कहीं ज्यादा अन्दूरनी खतरा भारी है
मंजिल अभी दूर है , रास्ता बहुत ही मुस्किल ,
उठ , अर्जुन ! उठा गांडीव ..देर न कर ..
विश्राम की नहीं बारी है
बहुत हो गया ये तमाशा , अब मत फंसों
भ्रस्त और कुटील नेताओं के इन झूठे नारों में .
प्रगती के वादे थोथें हैं …
यह कुर्सियों की नौटंकी है ,
उठ ..आग लगा दो गन्दी राजनीती की इन दीवारों में
गीता के श्लोक तेरे गीत हों , कुरान तेरी जुबान हो ,
हर मुठ्ठियों में चेतना आये ,
उठे क्रांति हर बस्ती , हर गलियारों में .
Poonam Shukla
Let the Mashal of Kranti spreads..Do share this Note in your profile /Friend
हर आखों में निराशा देखा .
देश के सत्ताशिखर पर प्रजातंत्र के नाम पर ,
हो रहा तमाशा देखा .
लुप्त होती नैतिकता , खत्म हुई मानवता
हर किसी को धर्म और छेत्र के नाम पर
हर एक के लहू का प्यासा देखा
आज
मेरे देश के हर सवाल पर ,
यह रहबरे , मुल्क क्यों मौन सा है ?
अखबारों की काली सुर्ख़ियों में
सहमा सिमटा यह देश कौन सा है ?
यह में क्या देखता हूँ
भयभीत चेहरों के बंद होठों की जुबान
उजरीं हुई बस्तियां और जलते हुये मक्कन .
खरोंचों से भरी देह लिए बहना की दास्तान ,
क्या येही है मेरा वो प्यारा हिंदुस्तान .
केस की फाईलों से पटी अदालतें ,
न्याय क्यों इतना गूंगा बेहरा है ?
क्या मायने हैं आज़ादी के ,
क्या गुलामी का जख्म इतना गहरा है ?
राजनीति की देहलीज़ पर दम तोड़ता प्रशासन ,
हर विकास , हर योजना , हर दफ्तर पर ,
भ्रष्टाचार का पहरा है .
उन मासूम चेहरों को देखो जीनहोने मौत को देखा है ,
जा कर पूछ रोती बहना से ,
जिसने इंसानी वेश में हैवान देखा है .
क्या तेरी रगों में बहता नहीं , सुभास भगत राणा और शिवाजी का खून ,
या फिर तुने कौन सा और कैसा हिंदुस्तान देखा है ?
नहीं देखी गज़नी और चंगेज़ की लूट ,
तो अपने ही नेताओं द्वारा लूटता हिंदुस्तान देख .
न सूनी नादिर के हमले , तो दंगों और आतंक से तड़पता हिंदुस्तान देख .
याद नहीं विभाजन की काली रातें , वोह गुलामी के काले दिन ,
तो गरीबी , भूखमरी और बेकारी से कराहता हिंदुस्तान देख .
यदि चाहिए वह देश तो हर कतरे मैं खून का उबाल चाहिए ,
गंगा कावेरी के मौजों से उछलता चीखता इन्कलाब चाहिए ,
हिमालय को पिघलाता , हिंद्सागर से उफानता
हर गली -कुचे मैं क्रांति का एलान चाहिए
आज़ादी मिली तो भी क्या , आज़ादी की जंग अभी भी जारी है
बाहरी ताकतों से कहीं ज्यादा अन्दूरनी खतरा भारी है
मंजिल अभी दूर है , रास्ता बहुत ही मुस्किल ,
उठ , अर्जुन ! उठा गांडीव ..देर न कर ..
विश्राम की नहीं बारी है
बहुत हो गया ये तमाशा , अब मत फंसों
भ्रस्त और कुटील नेताओं के इन झूठे नारों में .
प्रगती के वादे थोथें हैं …
यह कुर्सियों की नौटंकी है ,
उठ ..आग लगा दो गन्दी राजनीती की इन दीवारों में
गीता के श्लोक तेरे गीत हों , कुरान तेरी जुबान हो ,
हर मुठ्ठियों में चेतना आये ,
उठे क्रांति हर बस्ती , हर गलियारों में .
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