Saturday, February 11, 2012

‎"ए मेरे देश -- ए रहबरे- मुल्क


‎"ए मेरे देश -- ए रहबरे- मुल्क ,
मासूमियत सी इन मुस्कानों में , कल के सपने लिए इन आँखों में ,
एक बार झांक कर तो देखो ....जिसमें एक क्रांति की पुकार है....
सुप्त हुयी हमारी मानसिकता और ठन्डे हुए लहू को ललकार है.."
ए मेरे देश ,..

मुल्क के हर वाशिंदों में , हर दरजे में , हर आखों में निराशा देखा .
देश के सत्ताशिखर पर प्रजातंत्र के नाम पर ,हो रहा तमाशा देखा .
लुप्त होती नैतिकता , खत्म हुई मानवता ,बिकता इमानो-धर्म
हर किसी को धर्म और छेत्र के नाम पर ,हर एक के लहू का प्यासा देखा .

आज .....
मेरे देश के हर सवाल पर , यह रहबरे , मुल्क क्यों मौन सा है ?
अखबारों की काली सुर्ख़ियों में ;सहमा सिमटा यह देश कौन सा है ?

यह में क्या देखती हूँ .......
भयभीत चेहरों के बंद होठों की जुबान ,उजरीं हुई बस्तियां और जलते हुये मकान
खरोंचों से भरी देह लिए बहना की दास्तान ,क्या येही है ,मेरा वो प्यारा हिंदुस्तान .

केस की फाईलों से पटी अदालतें , न्याय क्यों इतना गूंगा बेहरा है ?
क्या मायने हैं आज़ादी के ,क्या गुलामी का जख्म इतना गहरा है ?
राजनीति की देहलीज़ पर दम तोड़ता प्रशासन ,
हर विकास , हर योजना , हर दफ्तर पर ,भ्रष्टाचार का पहरा है .

उन मासूम चेहरों को देखो जिन्होंने ने मौत को देखा है ,
जा कर पूछ रोती बहना से ,जिसने इंसानी वेश में हैवान देखा है .
क्या तेरी रगों में बहता नहीं , सुभाष , भगत, राणा और शिवाजी का खून ,
या फिर तुने कौन सा और कैसा हिंदुस्तान देखा है ?

नहीं देखी गज़नी और चंगेज़ की लूट ,तो अपने ही नेताओं द्वारा लूटता हिंदुस्तान देख
न सूनी नादिर के हमले , तो दंगों और आतंक से तड़पता हिंदुस्तान देख .
याद नहीं विभाजन की काली रातें , वोह गुलामी के काले दिन ,
तो गरीबी , भूखमरी और बेकारी से ; कराहता हिंदुस्तान देख .

यदि चाहिए वह देश ; तो हर कतरे मैं खून का उबाल चाहिए ,
गंगा कावेरी के मौजों से ; उछलता चीखता इन्कलाब चाहिए ,
हिमालय को पिघलाता , हिंद्सागर से उफानता
हर गली -कुचे मैं क्रांति का एलान चाहिए

आज़ादी मिली तो भी क्या , आज़ादी की जंग अभी भी जारी है
बाहरी ताकतों से कहीं ; ज्यादा अन्दूरनी खतरा भारी है
मंजिल अभी दूर है , रास्ता बहुत ही मुस्किल ,
उठ , अर्जुन ! उठा गांडीव ..देर न कर ..विश्राम की नहीं बारी है

बहुत हो गया ये तमाशा , अब मत फंसों
भ्रस्त और कुटील नेताओं के इन झूठे नारों में .
प्रगती के वादे थोथें हैं …...यह कुर्सियों की नौटंकी है ,
उठ ..आग लगा दो गन्दी राजनीती की इन दीवारों में

गीता के श्लोक तेरे गीत हों , कुरान तेरी जुबान हो ,
हर मुठ्ठियों में चेतना आये ,
उठे क्रांति हर बस्ती , हर गलियारों में .

"ए मेरे देश -- ए रहबरे- मुल्क ,
मासूमियत सी इन मुस्कानों में , कल के सपने लिए इन आँखों में ,
एक बार झांक कर तो देखो ....जिसमें एक क्रांति की पुकार है....
सुप्त हुयी हमारी मानसिकता और ठन्डे हुए लहू को ललकार है...."

Poonam Shukla

Let the Mashal of Kranti spreads

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