Sunday, January 30, 2011

दोस्तों को समर्पित जो हमेशा हौसला बुलन्द करते हुए साहस बढ़ाते रहे .....दोस्तों .


हम दुनिया को बताने चले आये..अपनी दिल की बात सुनाने चले आये;
उन्होंने फूलों की बात की थी शायद , हम काटों को चुभाते चले आये

वेह ज़िन्दगी  के खुशनुमा पहलु में थे , हम सच्चाई को बताते चले आये.
सोने की पूरी तयारी कर ली  थी  उन्होंने , हम उन्हें जगाने चले आये

हम दोस्ती में पागल थे , हमारें  आसूं का मोल ना कर
जो नफरत के पानी में भी  हम दोस्ती की  आग लगाने  चले आये

हर कोई हाथों में पत्थर लिए हमें दूड़ने लगा,सच का मुवयाजा देने  ,
फिर भी हम इन पत्थरों के दिलों में  जिंदगी की प्यास बढाने चले आये

टूटने लगे थे हम , हताश हो रहे थे हम , लफ्जों पर लगे पहरों से परेशां थे हम,
पर कुछ  ऐसे दोस्त भी थे जो हमें इस राह पर हिम्मत दिलाने  चले आए

 हमने कभी नहीं चाहा था दोस्त मिले किसी साधू सा ,
पर वे  दोस्ती का साथ निभाते  मेरे हमसफ़र, अदद  इंसान सा चले आये 
- Poonam Shukla 

तुम राम बन सको ; तो बन लो.........सही विजय का पर्व मनाएं


हम में ही राम है , हमीं में है रावण
 उस रावण को मार सको तो आयो , सही विजय का पर्व मनाएं.
 लक्ष्मण रेखा खींची है हमारे सामने भी ,
 सोने के मृग के छलावे में फसने से बचो तो बचा  लो अपने को ,
 साधू वेश में रावण इस अवसर की ताक में बैठा है आज भी .
 अपने वचन के अधिकारों से राम को करा सकते हो  वनवास ,
 हम कैकेयी को भरमाने के लिए मंथरा सक्रिय है आज भी. 
 जटायु , हनुमान , सुग्रीव और विभिसन मिल जायेंगे आपको 
 भरत और लक्ष्मण जैसे लोग  साथ देने को तैयार है आज भी.
 सीता अग्नि परीक्षा दे देगी आपके कहने पर आपकी मर्यादा के लिए ,
 पर  समाज के हर दायरे में खोज उस राम की जारी है आज भी .
 तुम राम बन सको  तो बन लो, वह कहीं तुममे ही छिपा हुआ है 
 अपने अन्दर के  रावण को मार सको तो आयो..
.....................सही विजय का पर्व मनाएं 

पर समाज के हर दायरे में खोज उस राम की जारी है आज भी

What is a policeman made of ?- by Paul Harvey


What Are Policemen Made Of 

Don't credit me with the mongrel prose: it has many parents-thousands of them: Policemen.A Policeman is a composite of what all men are, mingling of a saint and sinner, dust and deity.

Gulled statistics wave the fan over the stinkers, underscore instances of dishonesty and brutality because they are "new". What they really mean is that they are exceptional, unusual, not commonplace.

Buried under the frost is the fact : Less than one-half of one percent of policemen misfit the uniform. That's a better average than you'd find among clergy!

What is a policeman made of  ? He, of all men, is once the most needed and the most unwanted. He's a strangely nameless creature who is "sir" to his face and "fuzz" to his back.

He must be such a diplomat that he can settle differences between individuals so that each will think he won.But...If the policeman is neat, he's conceited; if he's careless, he's a bum. If he's pleasant, he's flirting;if not, he's a grouch.

He must make an instant decision which would require months for a lawyer to make.

But...If he hurries, he's careless; if he's deliberate, he's lazy. He must be first to an accident and infallible with his diagnosis. He must be able to start breathing, stop bleeding, tie splints and, above all, be sure the victim goes home without a limp. Or expect to be sued.

The police officer must know every gun, draw on the run, and hit where it doesn't hurt.He must be able to whip two men twice his size and half his age without damaging his uniform and without being "brutal". If you hit him, he's a coward. If he hits you, he's a bully.

A policeman must know everything-and not tell. He must know where all the sin is and not partake.

A policeman must, from a single strand of hair, be able to describe the crime, the weapon and the criminal- and tell you where the criminal is hiding.

But...If he catches the criminal, he's lucky; if he doesn't, he's a dunce. If he gets promoted, he has political pull; if he doesn't, he's a dullard. The policeman must chase a bum lead to a dead-end, stake out ten nights to tag one witness who saw it happen-but refused to remember.

The policeman must be a minister, a social worker, a diplomat, a tough guy and a gentleman.

And, of course, he'd have to be genius....For he will have to feed a family on a policeman's salary.

It's by by Paul Harvey — his tribute to law officers. Harvey's father was an officer who was killed in the line of duty when he was a young boy.


शिक्षक - हिंदी सिनेमा में - शिक्षक दिन पर विशेष


गुरु की भूमिका हिंदी सिनेमा में काफी अहम् रही है. शिछ्कों के रोले में कई अभिनेता रहे हैं.  सबसे पहले जो हमें याद आता है व्हो गीत " हम लायें हैं तूफ़ान से किश्ती निकल कर , रखना मेरे बच्चों इसे संभाल कर "  ..जागृति फिल्म में पहली बार एक टीचर के सशक्त भूमिका ने देश को प्रभावित किया.  

 दिल्लगी (१९७६) में संस्कृत टीचर की भूमिका में धर्मेन्द्र का रोल भी काफी अच्छा था.  चुपके चुपके में अमिताभ का प्रोफेस्सर परिमल के रूप में आना फिल्म की जान बन  कर रहा गया जिसमे वे बोटनी टीचर की भूमिका अदा कर रहे थे जब की वे इंग्लिश के टीचर थे.



पहले  की कई  फिल्मों में शिक्षक की भूमिका मं हमेशा हीरो का गेटअप खादी के कपड़ो या फिर बड़ा चश्मा पहने कुरते में दीखाई दिए. यह इमेज समाज में एक टीचर की हो सी गयी थी.  
  
फिर शुरू हुआ  परिवर्तन का दौर . रोल ग्लैमर का होता गया. मेरा नाम जोकर मैं सिमी ग्रेवाल का रोल तो याद ही होगा. यहाँ पर देखिये हेमा का शालीन रोल और मैं हूँ ना में सुष्मिता सेन की ग्लैमारिजद भूमिका जो उदहारण हैं किस तरह टीचर के इमेज मैं बदलाव आया .


हाल ही में बनी कई फिल्म जिसने टीचर की भूमिका को समाज में पहचाना .टीचर खादी के कुर्तें से निकल कर हो गया एक शानदार हीरो या फिर एक खूबसूरत व्यक्ति. आज की फिल्मों में टीचर की इमेज आधुनिक युग में  बदलाव  लाने वाले की बन गयी...जैसे मोहबतें में शाहरुख  खान  का संगीत टीचर का रोल.

पाठशाला में शहीद कपूर और स्कूल के बुनियादी मूल्यों की बात उठाती फिल्म ने शिक्षा छेत्र की सचाईओं को बखूबी बताया है. और तारे जमीन पर के बारे में कुछ ज्यादा कहने की जरूरत है..ना ही अमिताभ का यादगार रोल ब्लैक में . यह सारी फिल्मे लीक से हट कर बनी और गुरु के इमेज को नया रूप दिया ...  


 आज के दिन , हम अपने टीचरों को याद करें जिन्होंने हमें बनाने में एक अहम् भूमिका निभायी है. 

मुन्नी बदनाम हुई या भोजपुरी बदनाम हुई..


मुन्नी बदनाम हुई  या भोजपुरी बदनाम हुई..
यह सवाल मेरे जहन में आ रहा है...क्यों आजकल हिंदी सिनेमा में भोजपुरी को अश्लील आयटम नाच के तौर पर पेश किया जा रहा है. भोजपुरी और उसके अलग रूप में बोली जाने वाली लोक भाषाएँ उत्तर भारत की  संस्कृति और ऊँचे दर्जे के साहित्य से समृद्ध रही है. यह भाषा सिर्फ उत्तर भारत में ही नहीं ,सूरीनाम , गुयाना , ब्राज़ील ,त्रिनिदाद , फिजी , मौरीसस , साउथ अफ्रीका और यैसे कई देशों की भाषा है. बंगकोक  की गलियां हो या लन्दन की सड़कें. ..या फिर कोई कैरीबियन देश हो ..भोजपुरी के बोल हमेशा उस संस्कृति का अटूट हिस्सा रही है. ..देश के कितने  ही महान काव्य इस भाषा में रचे गए है.....देश की यही एक लोकभाषा है जो हर पचास मील पर एक नए रूप में बोली जाती है.पर हिंदी सिनेमा जिसने हिंदी को लोकप्रिय करने में एक अमुलनीय योगदान किया है ...भोजपुरी की तस्वीर कुछ थीं नहीं पेश की जा रही है.  चाहे कोई माने या न माने , भोजपुरी को हिंदी सिनेमा ने एक नौटंकी गीत का अश्लील रूप दे दिया है.....

वैसे आयेटम डांस फिल्म का हिस्सा रही है..जैसे शोले की "महबूबा महबूबा" या फिर तेजाब का " एक दो तीन चार " या फिर चाइना गेट का छम्मा  छम्मा ( उर्मिला मातोंडकर)   पर भोजपुरी  के नाम पर ठुमके लगाने  का  हिट मसाला आजकल बहुत चल रहा है . चोली  के पीछे क्या है . . ( राजस्थानी धुन पर था शायद) ....माधुरी दीक्षित के खलनायक ( १९९३) फिल्म के  इस गाने ने देश को चोंका कर रख दिया था.और इस पर काफी चर्चा भी हुई थी.  इसका सबसे ज्यादा प्रचार

हुआ शिल्पा शेट्टी के "शूल"   ( १९९९)  के ठुमके से " में आई हूँ ऊपी बिहार लूटने". इस गीत ने भोजपुरी के नया हिट मसाला फार्मूला दे दिया.  ससुर बेटा और बहु का ( अमिताभ , अभिषेक और ऐशवर्या )
का "कजरा रे कजरारे" ( बंटी और बबली २००५) तो मनो देश का सबसे लोकप्रिय नाच हो गया था और लोग ऐश्वर्या के हर अदा पर झूम उठे थे . बिपाशा बासु का " बीडी जलाई ले " ओमकारा में ने शायद भोजपुरी को  आयेटम डांस ब्रांडेड कर दिया.
यना गुप्ता का  "बाबूजी धीरे  चलो "  दम  में इस नाच ने एक नया निम्न स्तर का आयाम दे दिया.
मैंने यहाँ पर नौटंकी लड़कियों जैसे राखी सावंत की आयेटम नंबर को प्राथमिकता नहीं दी है. जब बॉलीवुड की जानी मानी हस्तियाँ भोजपुरी के इस तरह के धुन पर कम कपड़ों में जबरदस्त ठुमके लगाते हैं ( शायद सेंसर बोर्ड भोजपुरी के नाम पर लचीला हो जाता है ) तो यही सन्देश जाता है की भोजपुरी मात्र एक नौटंकी गीत है.

गंगा  मैय्या  तोहे  पियरी  चढैबो  ( १९६२) में पहली भोजपुरी फिल्म बनी थी.  आज दुनिया के बाहर बसे करीब २०० मिल्लियन लोगों की  भोजपुरी  दूसरी राष्ट्र भाषा है   . कई बार यह भी सोचती हूँ की हिंदी सिनेमा को क्यों दोष दिया जाए . जिस तरह बिहार और ऊपी में आये दिन न्यूज़ चैनलों पर नेताओं द्वारा भीड़ जुटाने के लिए नौटंकी की जाती है या फिर बी ग्रेड की भोजपुरी फ़िल्में लगाई जाते है....समाज को सन्देश तो गलत जाता ही रहेगा.

वक़्त आ गया है की भोजपुरी को इज्ज़त का दर्ज़ा दिया जाए और सही संस्क्रीती और सभ्यता का भी प्रचार किया जाए . यह भी तब जब अधिकाश हिंदी फिल्मों के  लेखक भोजपुरी से हैं.  
मुन्नी बदनाम हुई  या भोजपुरी बदनाम हुई....
इसकी जिम्मेदारी हम सब पर है और इसका हल   झंडू  बाम लगा कर दुनिया को कोसने  से नहीं बल्कि भोजपुरी के सही प्रचार में है

देश क़ी गरीबी भी बिकती है ..Peepli live for Oscar : ( caution - lekh aapko vichalit kar sakata hai )


पीपली लाइव ऑस्कर के लिए भारत की तरफ से चुनी गयी फिल्म ....येसा क्यों है की देश की गरीबी और भुखमरी पर ही बनी फ़िल्में बाहरी लोगों को पसंद आती है और पुरस्कार पाती है..... कब तक पश्चिम देशों के मनोरंजन का विषय बना रहेगा..?  यह एक कला है.....या देश की गरीबी और भूखमरी का व्यापार ???. slumdog millionaire हो  या फिर पीपली लाइव..  

यदि 1957  से भारत  द्वारा भेजी गए अब तक 3 फ़िल्में हैं जो सफल नोमिनेट हो पायीं है....1957 में मदर इंडिया , 1988 में  मीरा  नीर  की सलाम  बॉम्बे    , 2001 में आमिर  खान  की लगान  .   इन  फिल्मों  को देखें  तो यही  लगता  है..की देश की भुखमरी  और गरीबी   , कला  के नाम  पर प्लेट  में सजा  कर बेचने  का  एक  जरिया  है.....न  तो इन  पुरस्कारों  से  स्लम   बच्चों   की हालात  बदले  है और ना  ही किसी  नत्था   को आत्महत्या  से बचाया  जा  सका !


हो सकता मैं नमराताम्क  बात बता रही  हूँ पर .क्या  बात  है की  1960 में के .आसिफ  की  हिंदी  सिने  जगत  की भव्य  फिल्म The Great Mughal  ( मुग़ल  - ए -आज़म )  , 1965 में देवानंद  अभिनीत  "गाइड  " , 2008 में बनी रंग  दे  बसंती  और  2009 की एक बेहतरीन  मराठी  फिल्म " हरिश्‍चंद्राची फॅक्टरी "  भारत  की तरफ से भेजी  तो  गयी थी   पर नोमिनेट नहीं हो पाई ...क्यूंकि  यह पश्चिम के  जूरीओं   को पसंद नहीं आयी . 

तो आज भी भारत की गरीबी और भूखमरी बिकती है....चाहे वह कला ने नाम पर ही क्यों न हो ?? तो इसे  heritage का दर्ज़ा क्यों न दे दिया जाए

कब तक  भूख से बिलखते बच्चे , टपकती छत के नीचे सिमटे परिवार , तेज धुप में रिक्शा खींचता इन्सान  , दंगों में जान के भय से सहमे चेहरे और अस्पताल में बाहर तड़पते लोगों के इमजेस या फोटोग्राफ्स या फिर कोई   शोर्ट फिल्म  या फिर कोई न्यूज़ रील ...वेस्टर्न देशों के मनोरंजन का साधन बने रहेंगे....

सच  कहूं तो ...पश्चिम जगत क्यों जाए....हम भी तो breakfast टेबल  पर इन दृश्यों को देखते हुए ब्रेड पर मख्खन लगाते रहते हैं ......शायद इतनी करुणा ही रख लेना आजकल बहुत है....

बाढ़  में फंसे परिवार की  बेघर होने की तस्वीरें , हड़ताल में फंसे दिहाड़ी मजदूर के परिवार की भूखी याचना की आँखें  या फिर नक्सल के बंधक बने पुलिसवालों के परिवार की बिलखती न्यूज़ रील ... ....हमें  अब विचलित नहीं करती

मेरे पास भी विकल्प है...इस पर डोकुमेंत्री बना कर वाही वाही लुटी जाए  ..या फिर फेसबुक पर  लिख कर संतोष कर लूं ..या फिर सचमुच इनकी जिंदगी में परिवर्तन ला सके  ऐसा वास्तविक कार्य  करूं....

फिलहाल देश क़ी गरीबी भी बिकती है.....हम ओस्कर मिलने पर इसे देश का गौरव भी मानेंगे ..!!!!

ए मेरे देश -- क्रांति की एक पुकार

मुल्क के हर वाशिंदों में , हर दरजे में ,

हर आखों में निराशा देखा .

देश के सत्ताशिखर पर प्रजातंत्र के नाम पर ,

हो रहा तमाशा देखा .

लुप्त होती नैतिकता , खत्म हुई मानवता

हर किसी को धर्म और छेत्र के नाम पर

हर एक के लहू का प्यासा देखा




आज

मेरे देश के हर सवाल पर ,

यह रहबरे , मुल्क क्यों मौन सा है ?

अखबारों की काली सुर्ख़ियों में

सहमा सिमटा यह देश कौन सा है ?

यह में क्या देखता हूँ

भयभीत चेहरों के बंद होठों की जुबान

उजरीं हुई बस्तियां और जलते हुये मक्कन .

खरोंचों से भरी देह लिए बहना की दास्तान ,

क्या येही है मेरा वो प्यारा हिंदुस्तान .



केस की फाईलों से पटी अदालतें ,

न्याय क्यों इतना गूंगा बेहरा है ?

क्या मायने हैं आज़ादी के ,

क्या गुलामी का जख्म इतना गहरा है ?

राजनीति की देहलीज़ पर दम तोड़ता प्रशासन ,

हर विकास , हर योजना , हर दफ्तर पर ,

भ्रष्टाचार का पहरा है .



उन मासूम चेहरों को देखो जीनहोने मौत को देखा है ,

जा कर पूछ रोती बहना से ,

जिसने इंसानी वेश में हैवान देखा है .


क्या तेरी रगों में बहता नहीं , सुभास भगत राणा और शिवाजी का खून ,

या फिर तुने कौन सा और कैसा हिंदुस्तान देखा है ?




नहीं देखी गज़नी और चंगेज़ की लूट ,

तो अपने ही नेताओं द्वारा लूटता हिंदुस्तान देख .

न सूनी नादिर के हमले , तो दंगों और आतंक से तड़पता हिंदुस्तान देख .

याद नहीं विभाजन की काली रातें , वोह गुलामी के काले दिन ,

तो गरीबी , भूखमरी और बेकारी से कराहता हिंदुस्तान देख .




यदि चाहिए वह देश तो हर कतरे मैं खून का उबाल चाहिए ,

गंगा कावेरी के मौजों से उछलता चीखता इन्कलाब चाहिए ,

हिमालय को पिघलाता , हिंद्सागर से उफानता

हर गली -कुचे मैं क्रांति का एलान चाहिए



आज़ादी मिली तो भी क्या , आज़ादी की जंग अभी भी जारी है

बाहरी ताकतों से कहीं ज्यादा अन्दूरनी खतरा भारी है

मंजिल अभी दूर है , रास्ता बहुत ही मुस्किल ,

उठ , अर्जुन ! उठा गांडीव ..देर न कर ..

विश्राम की नहीं बारी है


बहुत हो गया ये तमाशा , अब मत फंसों

भ्रस्त और कुटील नेताओं के इन झूठे नारों में .

प्रगती के वादे थोथें हैं …

यह कुर्सियों की नौटंकी है ,

उठ ..आग लगा दो गन्दी राजनीती की इन दीवारों में


गीता के श्लोक तेरे गीत हों , कुरान तेरी जुबान हो ,

हर मुठ्ठियों में चेतना आये ,

उठे क्रांति हर बस्ती , हर गलियारों में .





Poonam Shukla

Let the Mashal of Kranti spreads..Do share this Note in your profile /Friend

लाइव इन रिलेशनशिप - सामाजिक जरूरत या सामाजिक समस्या

लाइव इन रिलेशनशिप - सामाजिक जरूरत या सामाजिक समस्या

एक बहुत चर्चित पर दबीजबान का विषय जो आज के आधुनिकता और तनावपूर्ण होती जिंदगी से पनप रही लाइव इन रिलेशनशिप . सम्युक्तापरिवार के लुप्त होने , करियर और प्रोफेस्सिओं main गला काट प्रतिस्पर्धा , असुरछा की भावना , भौतिक प्रगति की प्राथमिकता , क्रितीम माहौल की मजोबूरी और इकोनोमी पर निर्भर आपनो की नजदीकियां आज के समाज को एक नयी दिशा मिल रही है . पाश्चात्य संकृति का प्रभाव , घटते जा रहे शहरों के फासले , कम होती जा रही नर - नारी की दूरियां और जल्द ही बहुत कुच्छ प् लेने का बढता तनाव हमारी मानसिक और शारीरिक छमता से भी कहीं ज्यादा कुछ कर गुजरने का दबाव बनता है .

हाल में हुई फैशन माडलों की मौतों , कॉर्पोरेट जगत में बढ़ते सेक्सुअल हरस्समेंट के केसेस , नित नए उभरते स्केंदल्स और टीवी चैनलों पर टूटे बनते रिश्तों की मसालेदार कहानियां समाज का खोखलापन ही जाहिर करता है जिसे हम शायद एक शालीनता की चादर ओडे हमेशा स्वीकार करना नहीं चाहते हैं . मौलिकता की दुहाई देते संस्कृति की आड़ में युवायों पर नकेल कसने की धरम के ठेकेदारों की पोंगापंथी के बीच हम कहीं भूल रहें हैं बदलते समाज को समझ कर उसे अच्छी दिशा दे पाने की जिम्मेदारियां . युवा स्वंय संघर्ष कर आपना रास्ता बना रहा है उसे सही या गलत जाने बिना , अपने समाज के अनुसार . पबों में बदती भीड़ अब सिल्वर स्पून लिए लोगों से कहीं ज्यादा केरीयर के पायदान पर चड़तें होनहार लोगों की है

शहरों में उन्च्ची इमारतों के बीच , मनी ट्रान्सफर का वेट करते पेरेंट की छाया के बिना , जीवनसाथी चुनने में घुसी उनकी नाक और आपने बड़ों की रिमोट -चौकीदारी से दूर अकेलेपन का बढता अहसास दोठे युवक प् लेते हैं एक दुसरे में मानसिक निर्भरता की जरूरत जो बदल जाती लाइव इन रिलेशनशिप . वर्षों से लोग परदेश निकल जाते थे और इकठा रह कर गुजराकरते थे ताकि बहुत कुच्छ बचा कर लौट सकें आपने गावं . पर आज जब लड़कियों और लड़कों के कामों और छमताओं में कोई अन्तर ही नहीं रहा और काम करने वाली जगहों में १० से १२ घंटें साथ रहना अब हकीकत है , तो एक छत के नीचे साथ रहा कर बिना आज़ादी खोये क्यों नहीं रह सकते है ? यह सवाल आज लाइव इन रिलेशनशिप के तौर पर समाज में बहुत गहरी पैठ बना रह है चाहे हम सब इसे मान्यता उपरी तौर पर न दे पाए और नैतिकता का आडम्बर पहने इसे आधुनिकता के नाम पर नकारते रहें . पर इससे होने वाले परिणामों को हम नजरंदाज़ नहीं कर सकते .क्योंकि मानसिक निर्भरता को शारीरिक निभरता बनने में ज्यादा समय नहीं लगता है.

तो फिर लाइव इन रिलेशनशिप क्या सामाजिक जरूरत है या सामाजिक समस्या ? आज ये सोचना है की यह एक जरूरत बनी कैसे ?. कोई भी जरूरत अपनी निर्धारित सीमा के पार जाने पर समस्या तो बन ही जाती है और इन समस्यों को न रोका जाए तो सामाजिक कुरीतियाँ बन जाती है . क्या हम इसका ठीकरा आज की युवा पीड़ी पर थोक कर इसे ठीक करने की जिम्मेदारी भी उनपर डाल कर निश्चिंत हो जाए .

कितनी बार हमने उनसे उनका मित्र बन कर उनके तनाव को समझा है या हमेशा उन्हें प्रतियोगिता मैं आगे बदते रहने का दबाव देते देते कभी उन्हें अपना कन्धा भी दिया हो ताकि वो रो सके . कितनी बार हमने उनकी अपनी बातों को प्राथमिकता दी हो और उनकी भावनों का आदर किया हो ? कितनी बार हमने उनके साथ वक़्त गुजर कर अछ्चे और बुरे बातों की पहचान कराई हो ....जब हम उन्हें उंगली पकड़ा कर उनके बचपन का मार्गदर्शन करते है तो क्यों उनके हमारे कद के बराबर आ जाने पर उनपर उनसे बेपरवाह हो जाते हैं और उनका दोस्त बन कर उनके
हमसफ़र होने की बजे एक पुलिसिया की जिम्मेदारी निभाते हैं .

घरेलु हिंसा और उपभोक्तावादी विवाह संस्कृति

घरेलु हिंसा या डोमेस्टिक वायेलेंस फिर चर्चा का विषय हो गया है. राहुल -डिम्पी की कहानी उनके बेडरूम से टीवी स्टूडियो जा पहुंची है और करोड़ों घरों के टीवी स्क्रीन पर इस रीलियाटी शो के रीलियाटी को टी आर पी के लालच मैं मीडिया पेश कर रही है . सवाल राहुल डिम्पी के घरेलु हिंसा का नहीं है . सेलेब्रिटी स्क्रीन पर छाये रहने के लिए प्रतिभाओं के बजे इस तरह के न्यूज़ कर कैमरा के सामने बना रहना चाहते हैं. चाहे वह घरेलु हिंसा जैसे विषय को हास्यापद तरीके से सीरियल के बतोर पेश करने के लिए क्या इसका प्रसारण कर रहे माध्यम जिम्मेदार है या वे जो इसे फैशन मानकर समाज में अपने आप को किसी तरह भी चाहते है किसी चटपटे न्यूज़ का हीरो बने देखना.

सवाल राहुल डिम्पी का नहीं है . हजारों महिलाएं गाँव कस्बों शहरों में घरेलु हिंसा का शिकार बने ही नियति का खेल मान कर चुपचाप सह रही हैं . पेचीदे कानून , सवेदान्हीन पुलिस व्यवस्था और पुरुष पर निर्भर रहने की मजबूरी उसे घरेलु हिंसा का सहज शिकार बना देती है. यह कितनी बड़ी विडम्बना है जहाँ उसे सबसे ज्यादा सुरक्षीत होना चाहिए वहीँ उसके इस विश्वास का गला घोंट दिया जाता है . भारतीय समाज जो शादी के बंधन को एक पवित्र अटूट बंधन मानता है , जहाँ कन्यादान सबसे बड़ा दान मन जाता है , जहाँ भाई की कलाई में राखी बांधकर बहन खुश होती है , सात फेरे लेकर अग्नि के समछ पत्नी की रक्षा की कसम खाई जाती है , शक्ति की पूजा के लिए मान के दरबार में करोदं अपना शीश झुकाते हैं , वही नारी आपने ही आँगन में घरेलू हिंसा को आपने नियत मानाने में विवश है.

घरेलु हिंसा सिर्फ पति पत्नी की बीच हुई मारपीट नहीं है. नारी को घरेलु हिंसा से गुजरान जन्म से पड़ता है. विश्व स्वास्थ्य संघठन के अनुसार लिंग निर्धारण कर गर्भपात कराना , बालविवाह , किसी भी तरह से योन शोषण , हर प्रकार की मानसिक और शाररिक प्रतानरा घरेलु हिंसा के दायरे में आती है. हारमोंस इंजेक्शन के बल पर जवान होती बच्चियां और पंचायतों के आदेश पर बलि की भेंट होती युवतियां भी घरेलु हिंसा के घिनोना रूप का शिकार हो रहीं हैं. मात्र कानून बना देने से सरकार की जिम्मेदारियां कम नहीं हो जाती है. राज्य सरकारों से अपेक्षा की गई है कि वे स्वतंत्र संरक्षण अधिकारी नियुक्त करें और अदालतें इन केसों का निपटारा तुरंत करें.

घरेलु हिंसा एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है. सिर्फ अविकसित समाज की नहीं बल्कि समृद्ध और प्रगति देशों में भी महिलाएं इसका शिकार हो रहीं हैं. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हुए एक अध्ययन के अनुसार समाज में अपराधों के होने का एक बहुत बड़ा कारण है घरेलु हिंसा का होना. घरेलू हिंसा का शिकार बने परिवारों में बाले पड़े बच्चों में अपराधिक प्रवीरुति का पाया जाना आम बात है . इस लिए घरेलु हिंसा एक पारवीरीक समस्या ना होकर रास्त्र और अंतररास्ट्रीय समस्या मानी जाती है. इसके कई गंभीर दूस्प्रीनाम समाज को भोगने पड़ते हैं जो सिर्फ घरेलु हिंसा सहती महालियों तक ही सीमित नहीं रह जाती.

!! यत्र नारी पूज्यते रमन्ते तत्र देवता !! शास्त्रों में कहे जाने वाले इस देश में आज भी .अबला नारी तेरी यही कहानी . आंचल में दूध और आँखों में पानी ! 

Role of Police in Hindi Cinema- A brief History




हिंदी सिनेमा में पुलिस अधिकारी का मुख्य रोल - ज़ंजीर से दबंग तक हिंदी फिल्मों में पोलिस अधिकारी की भूमिका हमेशा से अहम् रही है. कई सफल फिल्मों के किरदार में अधिकारी मुख्य भूमिका में रहे हैं या फिर फिल्म के दमदार भूमिकाओं में दिखाई दिए हैं. कई कलाकारों ने इसे परदे पर सजीव कर दिया है. "अपने आप को पुलिस के हवाले कर दो" यह हिंदी सिनेमा का एक बुलन्द डायलोग हुआ करता था.हालाँकि पोलिस को कई बार हास्यापद तरीके से दिखाया गया और उनके अंडरवलर्ड के संभद को भी उजागर किया पर यैसे कई भूमिकाएं आयी हैं जिन्होंने दर्शकों पर यादगार छाप छोड़ी. यह एक इतिहास है की अमिताभ बच्चन को फिल्म इंडस्ट्री में पहचान “जंजीर”(1973) के पुलिस अधिकारी के रोल से ही मिला था. यह किरदार फिल्म इतिहास का एक अविस्मरनीय रोल बना जिसने एक महानायक को जनम दिया . सीआयीडी ( १९५६) में देवानंद का अपना अंदाज़ भी दर्शकों को बहुत भाया था . १९८२ में बनी शक्ति में दिलीप कुमार ने पुलिस अधिकारी के किरदार को काफी सशक्त रूप से परदे पर लाये खाकी एक कर्तव्यपरायण और फ़र्ज़ पर कुर्बान हो जाने वाली भूमिका में प्रभावशाली रही है. "दीवार"(१९७५) में शशि कपूर का भावुकतापूर्ण किरदार , अर्धय्सत्य (१९८३) में सचाई ले लिए लड़ने वाला ओमपुरी , "शूल" ( १९९९) में भ्रष्ट वयवस्था से लोहा लेते मनोज वाजपेयी ,, "सरफ़रोश" (१९९९) में तेजतरार आमिर खान ने इन किरदारों को एक ऊंचाई का मुक्काम दिलाया और खाकी की बेमिसाल इज्ज़त बनाई. मुख्यतौर पर हिंदी सिनेमा में पुलिस का रोल 
मुंबई केद्रित रहा है पर कई एसी फ़िल्में आयीं जिन्होंने अलग प्रदेशों की कहानियों में इसे दर्शाया जैसे गंगाजल ( २००३) में अजय देवगन और सेहर (२००५) में जान पर खेल माफिया का नाश करने वाले अरशद वारसी के रोल भी सराहनीय रहे और फिल्म की जान बन कर उभरे . यदि पोलिस अधिकारी के रोल की बात करें तो विनोद खन्ना की याद आती है . सत्यमेव जयते (१९८७) में अधिकारी अर्जुन सिंह , इंकार (१९७८) में खोजी पोलिसे अधिकारी के भूमिका और दर्शकों को मंत्र मुग्ध करने वाला अधिकारी अमर का अमर अकबर अन्थोनी ( १९७७) रोल आज भी तरोताजा है. पुलिस अधिकारी की भूमिका को परदे पर एक अहम् किरदार बनाने में २००४ में रिलीज़ हुई अमिताभ बच्चन की "खाकी" और सलमान खान की "गर्व" सफल फिल्मे रही है. अंडरवलर्ड को लेकर भी हिंदी सिनेमा ने कई फ़िल्में और पुलिस के किरदार प्रस्तुत किये जैसे नाना पाटेकर का अब तक छप्पन (२००४) या फिर शूट आउट अट लोखंडवाला (२००७) में संजय दत्त की भूमिका . पुलिस के किरदार को कॉमेडी का भी तड़का मिला है . १९८८ में बनी शहेंशाह में अधिकारी विजय का कॉमेडी रोल अमिताभ बच्चन ने बखूबी निभाया. और अब दबंग में सलमान खान चुलबुल पाण्डेय भी पुलिस अधिकारी की एक अजीब भूमिका में दिखाई देंगे बॉलीवुड के पुलिसिया किरदारों के इतिहास में एक नाम जो अमर सा हो गया है वोह है जगदीश शर्मा का जिन्होने १४४ फिल्मों में पुलिस अधिकारी की भूमिकों में जान सी फूंकी है. यह सफ़र है हिंदी सिनेमा में पुलिस अधिकारी की मुख्य भूमिक्याओं का . डाकुओं के पीछे जीप से भागने वाली पुलिस , , विल्लेन की ठुकाई के बाद सायरन की आवाजों का गूंजना , पोलिस का पहुंचना और एक बुलन्द आवाज " यू आर अंडर आर्रेस्ट" के साथ दर्शकों का तालियाँ बजाते हुए यही सोचना की पुलिस हमेशा अंत में ही क्यों पहुंचती है से रॉबिनहुड पाण्डेय का रोल. यह तो वक़्त ही बताएगा की दर्शकों को यह नया किरदार कितना पसंद आता है और खाकी की क्या गरिमा दिखाई जाती है 

Ek Soch - Kyon Baante Insaan Ko" Uske" Naam ek tukade Jameen par


लोग कहते है हर दिल में खुदा का घर  है , भगवान हर इंसान में  रहता है , 
फिर क्यों इस कदर उसमें नफरत आती है और शैतान चले आते हैं .

विद्वान् सिखाते  है की गीता और कुरान  अमन  का  सबक  बताते हैं ,
तो फिर हम कैसे गोलियों और बारूदों की भाषा सीख जाते हैं
.
हर दुआ में ,हर पूजा में , हम कहते हैं की "वोह" हर जर्रे जर्रे में है,
तो फिर एक टुकडे जमीन पर "उसके" लिए क्यों सब लड़ जाते हैं

राम भी "वह"  है , रहीम भी "वह"  है , हम सब "उसके" बन्दे हैं ,"वोह" हम सबका मालिक है
तो कौन हैं वे लोग ,जो "उसके" नाम पर  हमें अलग , अलग कर जाते हैं ?

UP नेताओं..अयोध्या पर मुंह खोलने से पहले सोचें अयोध्या विवाद के अलावा भी राज्य को काफी चुनोतियाँ और समस्याएं हैं


2001  प्लानिंग कमिसन की मानव विकास ईकाई  के अनुसार उत्तरप्रदेश भारत में  13  स्थान पर था. 1991  से यह पोसिजन 14  स्थान था. 

साक्षरता मैं राज्य 56.3% है जबकी केरला 90.9% , गोवा 82.०% , हिमाचल प्रदेश 76.5 % और तमिलनाडु 73.5 % हैं.   35 राज्यों और केंद्र शाशित प्रदेशों में उत्तरप्रदेश का स्थान 31 है.

1000  में  71  बच्चे 1 साल के पहले ही मौत के शिकार हो जाते हैं जो उत्तरप्रदेश की स्वस्थ्य सेवा का उदहारण है .

जनसँख्या वृद्धि मैं उत्तरप्रदेश का योगदान 2.33  ( 1991-2001) है जबकी देश का  1.94 % था.  केरला और तमिल्नादी जबकी 1 % के नीचे आ चुके हैं.

कैपिटा इनकम उत्तरप्रदेश की बिहार , मध्यप्रदेश और उड़ीसा की तरह ही निचले स्थान पर है . एक ज़माने मैं यह देश के औसत के बराबर  हुआ करती थी पर अब आधे से भी कम हो गयी है. जहाँ देश के प्रगति 6.3  % थी वहीँ  उत्तरप्रदेश सिर्फ 4.9 %  से बढ रहा है.

1999-2000 and 2005-06 के बीच देश की  आय मैं उत्तरप्रदेश की भागीधारी 9.1  % से घाट कर 8.4 % हो गयी.

गरीबी का स्तर काफी ज्यादा है.  उत्तरप्रदेश ने काफी अच्छा  कम तो किया पर देश के अन्य राज्यों की तुलना मैं पिछड़ा रहा.  1973-1974में 57.4% से घाट कर 2004-2005 में 32.8 % हो तो गयी पर देश का औसत 54.9% से घाट कर 27.5 % हो गया था. 2004-2005 के आंकड़ों के अनुसार  उत्तरप्रदेश में  60 लाख लोग गरीबे रेखा से नीचे है जो देश का  1/5 भाग है.

कृषि उत्पादन में भी पंजाब और हरियाणा  के मुकाबले  औसत उतपादन काफी कम है .

 बिजली उपभोग में 2004-2005  में  202  KWH .  ही था जबकि देश का औसत 411 KWH . था.  18 बड़े राज्यों में उत्तरप्रदेश 15 वें स्थान पर है.  जहाँ देश में 75.93% गाँव बिजली से जुड़े हैं वहीँ उत्तर[प्रदेश में 69.43% है. 

शिक्षा  मामले में 2004  के एक सर्वे  के अनुसार अन्य राज्यों केरला ( 2.96 स्कूल / गाँव , 416 छात्र /गाँव) , आँध्रप्रदेश ( 1.98स्कूल/गाँव , 186छात्र /गाँव) के मुकाबले उत्तरप्रदेश में 0.97 स्कूल/गाँव और 314  छात्र/गाँव थे.

 सामाजिक कार्यों में खर्च 1990-1991और 2000-2001में औसत   Rs. 3664 रुपये उत्तरप्रदेश का था देश के औसत  Rs 6071  के मुकाबले . 

कानून व्यवस्था के मामले में भी हालात इतने अच्छे नहीं हैं.  हिंसक अपराधिक वारदातों में  2007 में देश का 12.4 %  ( 26693  आउट ऑफ़ , 2,15,693)  उत्तरप्रदेश से था.  मर्डर केस में देश का 15.5 % ( 5000 out of 32318 ) उत्तरप्रदेश की भागीधारी थी.  अपहरण के मामले में देश का 16.5 % केसेस उत्तरप्रदेश के थे.   जहाँ देश में 125 पुलिस जवान है हर लाख जनसँख्या पर वहीँ उत्तरप्रदेश मैं या औसत 80  है और बिहार में सिर्फ 60.

यहाँ पर यह बात नहीं हो रही है की उत्तरप्रदेश कितना पिछड़ा है... उत्तरप्रदेश सांस्कृतिक , सामाजिक  , बौधितिक और साहस के मामले मैं बहुत आगे है. प्राकृतिक सम्पदायों से भी धनी है... तो फिर यैसे क्यों है की राज्य विकास पथ पर आगे नहीं है...और इसकी जो छवि है..उस सचाई से परे नहीं हट सकते . राजनैतिक नेतृतव की जरूरत  है जो एक सही और प्रबल नेतृत्व प्रदान कर सके ...यैसे नेताओं की जरूरत है जो स्वार्थ और लालच से उठ कर दलीय राजनीती छोड़ राज्य के विकास की बातें करें....

सारांश : अयोध्या विवाद के अलावा भी राज्य को काफी चुनोतियाँ औरसमस्याएं  हैं.   बहुत सारे विकास के मुद्दों पर भी काम करना है  ..

कब तक राज्य के लोग बाहरी राज्यों के शहरों में पलायन करते रहेंगे और हमेशा बाहरी होने का  लेबल लगाये मार सहते रहेंगे...

इस बारे में उत्तरप्रदेश के नेताओं का क्या कहना है ????

मेरा यह लेख किसी विशेष राजनैतिक दल या  किसी  विशेष नेता के लिए नहीं है.....यह उत्तर प्रदेश के समुचित और चहुंमुखी विकास की बात है. जांतपांत , भावनायों की बातों से निकल कर यथार्थ में आकर हमें देखना होगा ...क्या हमारा वर्तमान है ...और किस भविष्य की ओर बढ रहें हैं.... राज्य की प्रतिभायों और कुशल अधिकारीयों का सही उपयोग कर हमें इसे विकास  पथ पर लाना है.