Sunday, January 30, 2011


स  दिन  सुबह 
खिड़की  के  झरोखों   
से मैं  देख  रहा  था
 क्यों  हमीद  सफ़ेद  चादर  पहने  जमीन  पर  लेता  हुआ  है .

क्या  कल  खेल  का  दांव  देने  के  दर  से  छुपा  हुआ   है 
पर नफीसा  बी  क्यों  छाती  पीट  पीट  कर  रो  रही  है .

क्यों  पापा  दूर  खड़े  हैं  खुदाबक्श  चाचा  से क्यों  छाई  है  मायूसी 
रामभरोसे  की  दूकान  से आज  केतली  की  जगह 
दूकान  से   क्यों  धुआं  उठ  रहा  है 

तभी  गूंजने  लगी  सायरेन   की  आवाजें ,
मुहाल्ले   मे  आयीं  लाल  बत्तियों  से  टिमटिमाती   सफ़ेद  कारें 
 हरी - खाकियों  के  साए  मे  च्छुपे  कुछ  सफ़ेद  साए  उतरे .
वोह  देने  लगे  उपदेश  शांति   की  बातों  का ,
और  बता  रहे  कैसे  बचायेंगे  पापा  को  खुदाबक्श  से 
और  खुदाबक्श  को  पापा  से 


चलने  लगे  खींच  कर  लकीरें  बंदूकों  की 
कुछ  लोग  पापा  के  ओर  तो  क्यों  कुच्छ  लोग  खुदाबख्स  चाचा  के तरफ  खड़े  हैं .
क्यों  आयी  है  बंदूकों  वाली  पुलिस 

क्या पापा  , 
येही  दंगा  है .
क्या  इसे  ही   दंगा  कहते  है 
पर  ईद    और  दिवाली  तो  हमने  साथ  साथ  मनाई  थी .
सेवईओं और  मिठाई  तो  हम  दोनों  ने  खुद  चुरा  चुरा  कर  खाई  थी .
सलमा  की  बिदाई  मे  रामभरोसे  फूट  फूट  कर  रोया  था 
और  पंडित  की  बिटिया  की  डोली  खुदाबक्श  चाचा  ने  उठाई  थी .

की  तभी  कुछ   अचानक  हुआ ,
नफीसा  बी  हाथों  मैं  पत्थर  लिए 
 दौड़   पड़ी उन  सफ़ेद  सायों   के  पीछे   चिल्लाते   हुए ,
अरे  यही  तो  लोग  हैं जिन्होंने  हमीद  पर  गोली  चलाई 
और  रामभरोसे  की  दुकान  मैं  आग  लगाई 

फिर  अचानक  
जैसे  कुछ   सा  मोहल्ले  मे  हो  गया  हो 
पापा  के  कंधे   झुके  हमीद  की  अर्थी  उठाने  के  लिए 
और  खुदाबक्श  चाचा  दौड़  पड़े  रामभरोसे  की  दुकान  मैं  आग  बुझाने  के  लिए
 रामभरोसे  की  लाठी  तन  गयी 
अब  कोई  हमीद  न  मरें
 अब  कोई  मकान  न  उजड़े .

जब  भी  ऐसी   लाठियों  तन  जाती  मिलजुल  कर 
और  लोग  खडें  हो  जातें  मज़हबों  को  भूल  कर 
कोई  राजनीती  की  देहलीज़  पर  मजहबों   मे  दरार  नहीं  डाल  सकेगा 
तिरंगा  यूंही  लहराता  रहेगा   और  अमन  फैलाता  रहेगा 




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