Sunday, January 30, 2011

क्यों भूलते हैं CRPF ...मौत से जूझने वाला मौत को गले लगाता है ..मानवीय नज़र की जरूरत


के  विजयकुमार के CRPF DG बनने के बाद ,आज टाईम्स ऑफ़ इंडिया का लेख पढ़ा जो की CRPF पर लिखा गया है. आये दिन अखबारों में जवानों के मौतों की गिनती की होड़ सी मची हुई है मनो यह कोई दुखद घटना नहीं मौसम की जानकारी हो. इन सबके बीच हम उन छोटी खबरों को भूल रहे हैं जो आये दिन यह बता रही है मौत से जूझने वाला सिपाही मौत को खुद गले क्यों लगा लेता है...क्या बात है दुश्मनों पर टूट पड़ने वाला जवान अपने ही भाईयों पर हमला कर देता है. मेरे पास ज्यादा आंकड़े तो नहीं है पर यह समस्या छोटी नहीं बल्कि बहुत बढ़ी है .यदि अर्धसुरक्षा बल की बात करें तो ४४ suicide केसेस हर साल हो रहें हैं और २००५ से बढ़ते जा रहें हैं .जो शायद अब १०० के लगभग है .औसत १० केसेस हर साल जवानों द्वारा एक दूसरे को  या अधिकारी को मार देने की हो रही है.
इनके आंसू कौन पोछे
Once a soldier gets wounded, the immediate reaction by the force is to board him out as soon as possible यह बयान था एक सिपाही का. जो जवानों के मनोबल का संकेत है .

CRPF को लोग अब चलते रहो प्यारे फ़ोर्स ( chalte Raho Pyare Force )कहने लगे हैं.अपने साथियों को सूखे पत्तों की तरह गिरते देखना  , बन्दूक हाथ में लिए पर पत्थर खाते रहना , छुटियों को भूल , घर परिवार के तनाव लिए घंटो दर घंटो  कठिन वातावरण में काम  करते रहना , बुनियादी सुविधायों से दूर ,....क्या हमने इन्हें इंसान मानना ही छोड़ दिया है. मानव अधिकार सन्गाथाओं का पाखंड सिर्फ इन्ही के लिए है. 
यही मेरा घर है
राजनीती की बिसात पर बलि वेदी पर शहीद होते इन जवानों की गढ़ना   में ही हम कब तक व्यस्त रहेंगे ?  
कार्पोरेट जगत में मानव संसाधन पर करोड़ों रुपये खर्च होते हैं. अपने कर्मचारियों को कई सुविधायों और प्रशिक्षण प्रदान करते हैं . कई तरह के सेमिनार और वर्कशॉप में भेजा जाता है. तनाव ले लिए विशेष कार्यकर्म होते हैं....तो क्या बात हैं हम अर्धसैनिक बल को इनकी जरूरत से परे हट रहे हैं जो  बेहद तनावपूर्ण स्थिति में काम कर रहें हैं . उनके वक्तिगत समस्यों के निवारण की जिम्मेदारी किस पर है जब वे महीनो वर्षों दूर अनजाने मौत के द्वार पर खड़े रहते हैं..हो सकता है इस पर काफी काम हो  रहा है पर यह भी देखना है की क्या यह बहुत है ?राजनेताओं से उम्मीद करना बेकार है और सरकार इतने स्तर कुछ कर पायेगी....इस पर विश्वाश नहीं है..
राजनीती की बिसात पर पिटा जाना ही कर्तव्य है
शायद इनपर कीचड  उछल कर  हम कोई मानवता का या पश्चिम देशों द्वारा कोई पुरष्कार पा लेंगे ...पर यह क्यों भूल जाते हैं की हम महफूज़ भी इनकी वज़ह सी हैं. ..और हमारी तरह इनका भी दिल है...इनके भी परिवार  हैं....इन्हें भी मन करता है अपनी नयी नवेली  दुल्हन के साथ सिनेमा जाने का.....अपने मां के हाथ की   रोटी खाने का..

 इस बात से इंकार नहीं कर सकते की बलों का मनोबल ही सफलता की पहली सीड़ी है .

क्या ऐसा हो सकता है की कार्पोरेट जगत के प्रशिक्षित लोग अपना  कुछ समय इन जवानों के बीच बीतायें ....हम जैसे लोग एकाध दिन इनके कैम्पों में जाकर इनसे बातें करें ..पांच सितारा में बातें करने की बजे इनके कैम्पों  में हंसी और प्यार  के दो बोल बोलने की जरूरत है.... मानव  अधिकार के हनन की सुर्खियाँ उठा कर टीवी कैमरों में आना और स्टूडियो में बहस करने से अच्छा है ..इनके बीच इनके मनोबल को बढ़ाना ... 

एक आम आदमी का शुक्रिया...यैसे चाहिए बहुत सारे
यह एक पर्यटन स्थल भर न रह जाये..यह ज्योत जले हम सबके दिल में



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